डॉलर के सामने कमजोर हुआ रुपया — 88.7 के पास, वैश्विक दबाव और अमेरिका की नाराज़गी ने बढ़ाई आर्थिक अस्थिरता

Shoaib Miyamoor
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डॉलर के सामने कमजोर हुआ रुपया — 88.7 के पास, वैश्विक दबाव और अमेरिका की नाराज़गी ने बढ़ाई आर्थिक अस्थिरता

विक्रम सेन

 

नई दिल्ली। सोमवार को भारतीय रुपया कारोबार के दौरान लगभग ₹88.7 प्रति अमेरिकी डॉलर के स्तर पर रहा, जो उसके ऐतिहासिक निचले क्षेत्रों के बेहद नज़दीक है। निवेशकों में जोखिम-परहेज़ व डॉलर की मजबूती ने उभरती बाजार मुद्राओं पर दबाव बढ़ाया है।

 

क्यों गिर रहा है रुपया? — मुख्य कारण

 

1. अमेरिकी डॉलर की मजबूती और फेड-नीतियाँ: अमेरिकी मौद्रिक नीति और वैश्विक निवेशकों की ‘डॉलर-सेफहेवन’ प्रवृत्ति ने डॉलर को मजबूत रखा है, जिससे उभरती मुद्राओं पर दबाव आया है।

 

2. कच्चा तेल (इम्पोर्ट-बिल) दबाव: ब्रेंट क्रूड हाल के सत्रों में ~$63–64/बैरल पर ट्रेड कर रहा है — ईंधन आयात महंगा होने पर भारत का व्यापार-घाटा बढ़ सकता है और मुद्रा पर दबाव बनेगा।

 

3. घटते विदेशी मुद्रा भंडार का मनोविज्ञान: RBI के ताज़ा साप्ताहिक आंकड़ों के अनुसार भंडार लगभग $700 बिलियन स्तर पर आ गया है — यह स्तर अभी भी मजबूत माना जाता है, पर गिरावट का रुझान मुद्रा सेंटिमेंट को प्रभावित कर सकता है।

 

4. शेयर बाजार और FII प्रवाह: घरेलू सूचकांक में कमजोरी के साथ-साथ विदेशी संस्थागत निवेशकों के प्रवाह-रुझान भी महत्वपूर्ण हैं; हालाँकि कुछ सत्रों में FII शुद्ध खरीदार रहे, समग्र धार अक्सर अस्थिर दिखती है।

 

अमेरिका की नाराज़गी — कूटनीतिक प्रभाव और बाजार

 

अमेरिकी शीर्ष अधिकारियों ने भारत के कुछ रणनीतिक निर्णयों (विशेषकर रूस से ऊर्जा/तेल आयात से जुड़े लेनदेनों) पर सार्वजनिक रूप से असहमति और चिंता जताई है। अमेरिकी-भारतीय राजनीतिक टोन का बाजार मनोविज्ञान पर असर पड़ता है — इससे निवेशक-धारणा में अनिश्चितता बढ़ती है और पूंजी-प्रवाह पर दबाव पड़ सकता है। यह प्रभाव सीधा आर्थिक चैनल न होकर भावनात्मक और प्रवाह-आधारित चैनलों के जरिये आता है।

 

हालांकि अमेरिका की कूटनीतिक नाराज़गी का तत्काल अर्थ यह नहीं कि व्यापारिक-सम्बन्ध टूटेंगे; परन्तु बाजारों में भावनात्मक अस्थिरता, ट्रेडिंग-रुख और जोखिम प्रीमियम पर असर पड़ सकता है — जिसका रुपया-मान से जुड़ा प्रतिफल देखा जा रहा है।

 

क्या RBI या सरकार कर सकती है? (संभावित विकल्प)

 

मौद्रिक हस्तक्षेप: RBI आवश्यकतानुसार बाजार में हस्तक्षेप कर सकता है — सीधे डॉलर बेचकर या रिज़र्व बनाकर विनिमय-दबाव से निपटने की कोशिश।

 

राजकोषीय और व्यापार नीतियाँ: आयात बिल नियंत्रित करने के उपाय, ऊर्जा-स्रोतों में विविधता और आयातगत अनुबंधों में समायोजन।

 

कूटनीतिक संवाद: अमेरिका और अन्य साझेदारों के साथ संवाद तेज करके संभावित नीतिगत घनिष्ठता और व्यापारिक अनिश्चितता को कम करना।

 

संभावित प्रभाव (मध्य-से-दीर्घकाल)

 

महँगाई पर दबाव: यदि रुपया लंबे समय तक कमजोर रहा तो इम्पोर्टेड इन्फ़्लेशन (विशेषकर ईंधन, उर्वरक) बढ़ेगा।

 

कंपनी-स्तर: आयात-निर्भर कंपनियों के लिए लागत बढ़ेगी; निर्यातकों को अल्पकाल में लाभ हो सकता है।

 

निवेशक-व्यवहार: बढ़ी अनिश्चितता से विदेशी पूंजी प्रवाह धीमा पड़ सकता है, जिससे बाजारों में उतार-चढ़ाव बने रहेंगे।

 

इस हालात में क्या कर सकतें हैं नीति-निर्माता?

 

नीति-निर्माताओं के लिए प्राथमिकता: मौद्रिक और बाह्य-स्थिरता को संतुलित रखना, साथ ही कूटनीतिक चैनलों के माध्यम से बाजार-विश्वास बहाल करना।

 

निवेशकों के लिए: जोखिम-वितान (risk management) पर ध्यान दें — हेजिंग विकल्प, अल्पकालिक अनुकूलन और विविध पोर्टफोलियो रणनीतियाँ अपनाएँ।

 

आम उपभोक्ता के लिए: ईंधन और आयातित सामानों की कीमतों पर जल्द असर संभव — घरेलू बचत और बजट-योजना पर ध्यान दें।

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