नई दिल्ली : कच्चाथीवु द्वीप को लेकर राजनैतिक विवाद जारी है, भाजपा इसे लेकर कांग्रेस पर हमलावर है. पीएम मोदी ने भी पिछले दिनों इस द्वीप का जिक्र किया था. इसके अलावा तमिलनाडु में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलाई और और विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी इसे लेकर कांग्रेस पर सवाल उठाए थे. एस. जयशंकर ने यह भी सवाल उठाया था कि कैसे रामानापुरम से 24 किमी दूर बंजर द्वीप कैसे श्रीलंका का हिस्सा बन गया. उधर कांग्रेस ने मोदी सरकार द्वारा बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौते में हजारों एकड़ भूमि के नुकसान का आरोप लगाया है. इन विवादास्पद मुद्दों पर हुए समझौते को प्राप्त खबरों के अनुसार कुछ पहलुओं को जानते समझते हैं.
गत दिनों जयशंकर के अनुसार, पिछले दो दशकों में श्रीलंका ने 6,184 भारतीय मछली पकड़ने वाली नावों को जब्त कर लिया है और 1,175 भारतीय मछली पकड़ने वाली नावों को जब्त कर लिया है. “हमें एक समाधान समाधान होगा.” हमें श्रीलंकाई सरकार के साथ मिलकर इस मुद्दे पर काम करना होगा.”
कच्चाथीवु द्वीप विवाद के बारे में अशोक के कांथा जो 1977 बैच के भारतीय विदेश सेवाअधिकारी के अधिकारी हैं तथा राजदूत भी रहें हैं ने कहा कि भारतीय मछुआरे मछली पकड़ने वाले आम तौर पर बड़ी संख्या में मछली पकड़ने के लिए बाहर जाते हैं और वे श्रीलंका के पानी में गहराई तक जाते हैं और नीचे मछली पकड़ने का काम करते हैं। यही कारण है कि वे गिरफ़्तार हो जाते हैं.
बेशक कच्चाथीवु द्वीप विवादों में हैं, लेकिन इस समझौते के बाद भारत और श्रीलंका के बीच एक और समझौता हुआ था. 1976 में हुए इस समझौते के तहत श्रीलंका ने कन्याकुमारी समुद्री तट से करीब 80 किलोमीटर दूर समृद्ध संसाधन से संपन्न वाड्ज बैंक (तट) को भारतीय क्षेत्र के रूप में मान्यता दी थी. यह दुनिया के सबसे समृद्ध मछली पकड़ने के मैदानों में से एक है और कच्चाथीवु द्वीप की तुलना में समुद्र के कहीं अधिक रणनीतिक हिस्से में है. कन्याकुमारी के पास का यह क्षेत्र चार दशकों से अधिक समय से तमिलनाडु और केरल के मछुआरों के लिए महत्वपूर्ण रहा है. वाड्ज बैंक लगभग 3,000 वर्ग मील को कवर करता है.
बता दें कि कच्चाथीवु द्वीप 285 एकड़ में फैला हुआ हैं अगर इसके एरिए की तुलना की जाए तो जेएनयू कैंपस से साढ़े तीन गुना छोटा हैं और लाल किला इससे थोड़ा ही छोटा हैं.
वाड्ज बैंक क्यों है महत्वपूर्ण
वाड्ज बैंक कन्याकुमारी के तट से 50 मील समुद्र की ओर लगभग 80 किलोमीटर दूर एक महाद्वीपीय शेल्फ है और 1920 के दशक से श्रीलंका के अधीन रहा है, जहां पर उसके मछुआरे मछली पकड़ने जाते थे. वाड्ज बैंक कन्याकुमारी के दक्षिण में स्थित है और इसको लेकर दोनों देशों के बीच 1976 में समझौता हुआ. वाड्ज बैंक लगभग 3,000 वर्ग मील को कवर करता है और कोलंबो से लगभग 115 समुद्री मील पूर्व में है. प्राप्त खबरों के अनुसार श्रीलंका के साथ सामुद्रिक समुद्री सीमा मुद्दे के समाधान ने द्वीपों को मजबूत स्थिति में ला दिया और वाड्ज बैंक में मछली पकड़ने के, ज्वालामुखी, हाइड्रोलिक कार्बन संरचना के दोहन और अन्य अधिकारों पर भी स्पष्टता प्रदान की. इस अधिनियम को आम तौर पर भारत के लिए उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि जैव विविधता से समृद्ध एक महत्वपूर्ण समुद्री क्षेत्र पर संप्रभु का अधिकार सुरक्षित है और इसे भारत के सबसे समृद्ध मत्स्य संग्रह में से एक माना जाता है.
श्रीलंका के सिलोन में फिशर रिसर्च स्टेशन द्वारा 1957 में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि वाड्ज बैंक कई वर्षों तक दुनिया के कुछ सफल मत्स्य पालन का केंद्र हुआ करता था. पहला सर्वेक्षण 1907 में कैप्टन हॉर्नेल और कैप्टन क्रिब द्वारा सिलोन पर्ल फिशरी कंपनी की ओर से आया. 1929 में मद्रास सरकार की रिपोर्ट में कहा गया था कि केप कॉमिन का क्षेत्र (जो वर्तमान में कन्याकुमारी है) गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के लिए मई से अक्टूबर तक सबसे उपयुक्त है.
1976 में क्या हुआ?
भारत और श्रीलंका के बीच 1976 के समुद्री सीमा समझौते ने वाड्ज बैंक पर नई दिल्ली की संप्रभुता को मान्यता दी. भारत और श्रीलंका के बीच 23 मार्च 1976 को हस्ताक्षरित समझौते में कहा गया कि यह भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र के अंतर्गत आता है और इस क्षेत्र के संसाधनों पर भारत का संप्रभु अधिकार होगा. हालांकि इसकी समृद्धि और संसाधन मत्स्य पालन तक ही सीमित नहीं हैं. इस समझौते में यह भी कहा गया भारत द्वारा अपनी विशेष आर्थिक स्थापना की तारीख से मात्र तीन वर्ष तक यहां पर छह श्रीलंकाई जहाजों को मछली पकड़ने की अनुमति होगी और इसके लिए भी भारत से लाइसेंस लेना होगा. इसके साथ ही श्रीलंकाई मछुआरे हर साल 2000 टन से ज्यादा मछली यहां से नहीं पकड़ सकते. समझौते में यह भी कहा गया कि भारत अगर तीन वर्ष के अंदर यहां पर पेट्रोल या दूसरे खनिज संसाधनों का पता लगाता है तो श्रीलंका यहां पर मछली पकड़ने की गतिविधि बंद कर देगा.
भारत ने इस साल निकाला है तेल की खोज का टेंडर
प्राप्त जानकारी अनुसार भारत की तरफ से इस वर्ष की शुरुआत में इस क्षेत्र में तेल की खोज के लिए केंद्र सरकार की तरफ से टेंडर भी निकाला है. भारत और श्रीलंका के बीच 1976 के समझौते में विशेष रूप से एक प्रावधान भी रखा गया, जिसमें कहा गया कि यदि भारत सरकार वाड्ज बैंक में पेट्रोलियम और अन्य खनिज संसाधनों के लिए का पता लगाने का निर्णय लेती है तो वह श्रीलंका सरकार को इसके बारे में सूचित करेगी, जिसके बाद श्रीलंका मछली पकड़ने वाले जहाज को इस क्षेत्र में प्रतिबंधित कर देगी. 1976 के समझौते के अनुसार, कुछ महीने पहले भारतीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने हाइड्रोकार्बन और तेल की खोज के लिए इस क्षेत्र में नोटिस भी निकाला था. समझौते का ही परिणाम है, जहां श्रीलंका 1920 के दशक की शुरुआत से मछली पकड़ने का काम करता था, उसने यहां पर अपने मछुआरों के जाने पर रोक लगा दी है.
कच्चाथीवु द्वीप विवाद को संक्षिप्त में जानें
कच्चाथीवु द्वीप को श्रीलंका को दिए जाने के बारे में तमिलनाडु बीजेपी अध्यक्ष के अन्नामलाई ने एक आरटीआई के तहत जानकारी मांगी थी. आरटीआई के जवाब में मिली जानकारी के बाद बीजेपी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस के ढुलमुल रवैये की वजह से द्वीप श्रीलंका के पास चला गया. आरटीआई से मिली जानकारी में पंडित नेहरू के साल 1961 में लिखे गए एक नोट का जिक्र भी आया जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री ने लिखा था कि मैं इस द्वीप को बिल्कुल भी महत्व का नहीं मानता और इसे श्रीलंका को देने में कोई भी हिचकिचाहट नहीं दिखाऊंगा. इसके आधार पर बीजेपी ने कांग्रेस पर हमलावर रुख अख्तियार किया हुआ है और उस पर भारतीय भूभागों की रक्षा को लेकर उदासीन रहने का आरोप लगाया है.
इस विवाद पर श्रीलंकाई विदेश मंत्री ने कहा कि कच्चाथीवु पर कोई विवाद नहीं है. वे (भारत में राजनेता) आतंरिक राजनीतिक बहस कर रहे हैं कि कौन जिम्मेदार है. इसके अलावा, कोई भी कच्चाथीवु पर दावा करने के बारे में बात नहीं कर रहा है. साबरी ने कहा कि 50 साल पहले कच्चाथीवु के मसले को हल किया जा चुका है और इस पर दोबारा गौर करने की कोई जरूरत नहीं है.
वहीं वरिष्ठ शिक्षक नेता के भारती ने कहा: “अगर मोदी की इच्छा होती तो कच्चातीवु पर, वह अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान उस द्वीप को पुनः प्राप्त कर सकते थे, उन्होंने कच्चाथीवु की जमीन क्यों नहीं ली?”
जबकि इस मुद्दे पर कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि भाजपा कच्चाथींवू मुद्दे को तोड़मरोड़कर पेश कर रही हैं. पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1974 के एक्जाक्ट पर हस्ताक्षर करने की तुलना जून 2015 में बांग्लादेश के समर्थन में मोदी की भूमि सीमा समझौते से की, और पुछा की देश को किस समझौते से ज्यादा फायदा मिला हैं?
वहीं जयराम रमेश ने 2015 में भारत और बांग्लादेश के बीच हुए लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट पर कहा कि भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के तहत हस्ताक्षरित 2015 के समझौते से भारत का भूमि क्षेत्र ‘10,051 एकड़’ कम हो गया. “2015 में, मोदी सरकार ने बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें 17,161 एकड़ भारतीय क्षेत्र ढाका को दे दिया गया, जबकि बदले में केवल 7,110 एकड़ भारत को मिला. प्रभावी रूप से, भारत का भूमि क्षेत्र 10,051 एकड़ कम हो गया. प्रधानमंत्री पर बचकाना आरोप लगाने के बजाय, कांग्रेस पार्टी ने संसद के दोनों सदनों में विधेयक का समर्थन किया.”
2015 में भूमि सीमा समझौता (एलबीए) को कैसे पहनाया अमली जामा? जानें
जब 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केंद्र में सत्ता में आए, तो उनकी सरकार ने ‘पड़ोसी प्रथम नीति’ को अपनी विदेश नीति का मुख्य हिस्सा बनाया. इस नीति के तहत भाजपा सरकार का लक्ष्य बांग्लादेश समेत अपने अन्य पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते मजबूत करना था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मौदी ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री पीएम शेख हसीना से दो बार, पहले न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के मौके पर और फिर काठमांडू में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन में, मुलाकात की.
जानकारों का कहना है कि भारत और बांग्लादेश के बीच वर्ष 1974 में हुए सीमा समझौते के 41 साल बाद यानी जून 2015 में बांग्लादेश के साथ कुछ इलाकों और रिहाइशी बस्तियों की अदला-बदली के एतिहासिक 119वें संविधान संशोधन विधेयक पर संसद ने मुहर लगा दी. यह विधेयक राज्यसभा के बाद लोकसभा में भी सर्वसम्मति से पारित हो गया. खास बात यह रही कि विधेयक के खिलाफ किसी भी सदस्य ने मतदान नहीं किया। सरकार का कहना था कि हालांकि बांग्लादेश के मुकाबले भारत को कम जमीन मिल रही है, लेकिन जो 10 हजार एकड़ जमीन भारत, बांग्लादेश को सौंप रहा है, वहां के हालात कुछ ऐसे हैं कि वहां पहुंचना काफी दुष्कर है, जिसके चलते नागरिक सुविधाएं मुहैया करना में काफी दिक्कतें पेश हो रही थीं. वहीं कुछ ऐसी ही स्थिति बांग्लादेश के सामने भी आ रही थी और इंसानियत के लिहाज से ऐसा करना ही दोनों देशों के लिए हितकर था. साथ ही, इन इलाकों में रह रहे लोग सालों से अपने हक के लिए तरस रहे थे. इन लोगों के पास न तो पूर्ण कानूनी अधिकार थे, और न ही उनके पास बिजली, स्कूल और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सहूलियतें थीं. वहीं समझौते के अमल में आने के बाद, ये लोग भी आम नागरिक की तरह अपनी जिंदगी जी रहे हैं.
बांग्लादेश से भूमि सीमा समझौता में क्या शामिल रहा? संक्षिप्त में जानें
जून 2015 में, भारत और बांग्लादेश ने ढाका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख ने इस एतिहासिक भूमि समझौते पर हस्ताक्षर किए। भूमि सीमा समझौते में 162 इलाकों की अदला-बदली शामिल थी, जिसमें 111 इलाके (17,160 एकड़) बांग्लादेश को और 51 इलाके (7,110 एकड़) भारत के हिस्से आए थे। समझौते ने एन्क्लेव निवासियों को भारत या बांग्लादेश में रहने का विकल्प दिया. इलाकों का आदान-प्रदान 31 जुलाई 2015 को शुरू हुआ। इस समझौते के तहत भारतीय क्षेत्र में स्थित 51 बांग्लादेश इलाकों में रहने वाले लगभग 14,854 निवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान की गई, जबकि बांग्लादेश में भारतीय एन्क्लेव से अन्य 922 व्यक्तियों ने 2015 में कूचबिहार जिले में प्रवेश किया. बांग्लादेश से आए इन लोगों को पश्चिम बंगाल के दिनहाटा, हल्दीबाड़ी और मेकलीगंज में तीन बस्ती शिविरों में बसाया गया था। वहीं, 36,000 से अधिक एन्क्लेव निवासियों ने बांग्लादेशी राष्ट्रीयता का विकल्प चुना. वहीं देखा जाए तो सीएए लागू होने के बाद सबसे ज्यादा फायदा इन्हीं लोगों को मिलेगा.
इस भूमि समझौते से लगभग 50,000 लोगों को फायदा मिला, जो अभी तक किसी देश में नहीं थे और 1947 में भारत के विभाजन के बाद से शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य सेवाओं जैसी बुनियादी जरूरतों का लाभ प्राप्त किए बिना, एन्क्लेव में रह रहे थे. मोदी सरकार ने बांग्लादेश से भारत आए एन्क्लेव निवासियों के लिए 1005.99 करोड़ रुपये के पुनर्वास पैकेज को भी मंजूरी दी.
बहरहाल लोकसभा चुनाव के समय इन देश हित में सुलझे हुए मुद्दों पर सियासत के गलियारों में चर्चा फिर तेज हैं .