“क्या पिता और उनके बच्चे अलग-अलग जाति के हो सकते हैं?”
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सुनिल इंगोले
मुंबई उच्च न्यायालय ने अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र सत्यापन समिति की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाते हुए तीखी नाराजगी जताई है। न्यायमूर्ति रविंद्र घुगे और न्यायमूर्ति अश्विन भोबे की खंडपीठ ने कहा, “जब पिता और उनके भाई को अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र दिया गया है, तो बच्चों को क्यों नहीं दिया जा रहा? क्या पिता और उनके बच्चे अलग-अलग जाति के हो सकते हैं?”
खंडपीठ ने इस अजीबोगरीब फैसले के लिए इचलकरंजी के उपविभागीय अधिकारी और समिति के तीन सदस्यों पर ₹2,500 का जुर्माना लगाया। कोर्ट ने आदेश दिया कि जुर्माने की कुल ₹10,000 की राशि तीन याचिकाकर्ताओं को दी जाए।
मामले का विवरण:
याचिकाकर्ता सुयशा अरुण वासवडे, अनिशा वासवडे, और आयुष वासवडे ने अपने पिता अरुण वासवडे के अनुसूचित जनजाति (महादेव कोली) प्रमाणपत्र के आधार पर प्रमाणपत्र मांगा था। अरुण वासवडे को 2021 में उनके चाचा के 1985 के प्रमाणपत्र के आधार पर यह प्रमाणपत्र दिया गया था।
हालांकि, इचलकरंजी के उपविभागीय अधिकारी ने याचिकाकर्ताओं को प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया। इसके बाद समिति ने भी उनके अपील को खारिज कर दिया। इस पर तीनों याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता चिंतामणि भनगोजी ने उच्च न्यायालय में याचिकाएं दाखिल कीं।
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न्यायालय का सख्त रुख
खंडपीठ ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए कहा, “यह पूरी प्रक्रिया अन्यायपूर्ण और भ्रामक है।” कोर्ट ने समिति और उपविभागीय अधिकारी की कार्यप्रणाली पर कड़ी फटकार लगाई और तीनों याचिकाकर्ताओं को उचित न्याय दिलाने के लिए ₹10,000 का मुआवजा देने का आदेश दिया।
यह फैसला अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र सत्यापन से जुड़े मामलों में प्रशासन की लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी को उजागर करता है। अदालत के इस कड़े रुख ने कई ऐसे मामलों के लिए उम्मीद की किरण जगाई है, जहां जनजातीय अधिकारों का हनन हो रहा है।